Khaak

तेरा ज़िक्र हो, बस और कोई बात न हो

दीये की लौ जले, और ख़त्म रात न हो

साँसों को आने-जाने की शिकायत न रहे

मेरी राख के अंगारों की कोई ज़ात न हो

तेरी महफ़िल में आएं हैं ख़ामोशी बन कर

सजदा क़बूल कर, चाहे मुलाक़ात न हो

इक आधे से चाँद को काँधा देने

बादल घिर तो आएं, मगर बरसात न हो

‘ख़ाक’ को इश्क़ नहीं रंगों से

तेरा ज़िक्र हो, बस और कोई बात न हो

Published by ElusiveSilence

Always wondering....

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