
तेरा ज़िक्र हो, बस और कोई बात न हो
दीये की लौ जले, और ख़त्म रात न हो
साँसों को आने-जाने की शिकायत न रहे
मेरी राख के अंगारों की कोई ज़ात न हो
तेरी महफ़िल में आएं हैं ख़ामोशी बन कर
सजदा क़बूल कर, चाहे मुलाक़ात न हो
इक आधे से चाँद को काँधा देने
बादल घिर तो आएं, मगर बरसात न हो
‘ख़ाक’ को इश्क़ नहीं रंगों से
तेरा ज़िक्र हो, बस और कोई बात न हो